नदी के दोनों पाट
नदी के दोनों पाट लहरते हैं
आग की लपटों में
दो दिवालिए सूदखोरों का सीना
जैसे फुँक रहा हो
शाम हुई
कि रंग धूप तापने लगे
अपनी यादों की
और नींद में डूब गई वह नदी
वह आग
वह दोनों पाट, सब कुछ समेत
क्योंकि जो सहते हैं जागरण
जिसका कि नाम दुनिया है
वह तो नींद के ही अधिकारी हैं
और यह भी कौन जाने
उन्हें सचमुच नींद आती भी है या नहीं!
कहीं कभी
कहीं कभी सितारे अपने आपकी
आवाज पा लेते हैं और
आसपास उन्हें गुजरते छू लेते हैं...
कहीं कभी रात घुल जाती है
और मेरे जिगर के लाल-लाल
गहरे रंग को छू लेते हैं,
हालाँकि यह सब फालतू लगता है
यह भागदौड़ और यह सब
सब कुछ रूखा-सूखा है
लेकिन एक बच्चे की किलकारी की तरह
यह सब मधुर है
लेकिन कहीं कभी एक शांत स्मृति में
हम अपने सपनों का
इंतजार कर रहे हैं
यदि ऐसा हो तो...
एक प्यारी-सी लड़की अकेले प्रकाश में
उसका चेहरा ही प्यार बोलता था
मैंने उसका आलिंगन किया
मैंने उसके होंठों को चूमा
आह, कितना सुखद-सुख...
नेता, योद्धा, राजे-महाराजे
इस धरती के महान
लेकिन इस भीड़ के सबसे ऊपर
मैंने खुद ईश्वर का अभिनय किया
माँ धरती की गोद में
मैं स्वयं एक सही ईश्वर के
रूप में प्रस्तुत हुआ...
आकाश के प्याले से मैंने पिया
एक खुली हँसी से मैंने अपना प्याला भरा
लेकिन उनमें केवल सपने ही सपने थे
अनंत-अनेक
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