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विशेष (15 सितंबर 2017), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

कविताएँ
भुवनेश्वर

नदी के दोनों पाट

नदी के दोनों पाट लहरते हैं
आग की लपटों में
दो दिवालिए सूदखोरों का सीना
जैसे फुँक रहा हो
शाम हुई
कि रंग धूप तापने लगे
अपनी यादों की
और नींद में डूब गई वह नदी
वह आग
वह दोनों पाट, सब कुछ समेत
क्योंकि जो सहते हैं जागरण
जिसका कि नाम दुनिया है
वह तो नींद के ही अधिकारी हैं
और यह भी कौन जाने
उन्हें सचमुच नींद आती भी है या नहीं!

कहीं कभी

कहीं कभी सितारे अपने आपकी
आवाज पा लेते हैं और
आसपास उन्हें गुजरते छू लेते हैं...
कहीं कभी रात घुल जाती है
और मेरे जिगर के लाल-लाल
गहरे रंग को छू लेते हैं,
हालाँकि यह सब फालतू लगता है
यह भागदौड़ और यह सब
सब कुछ रूखा-सूखा है
लेकिन एक बच्चे की किलकारी की तरह
यह सब मधुर है
लेकिन कहीं कभी एक शांत स्मृति में
हम अपने सपनों का
इंतजार कर रहे हैं

यदि ऐसा हो तो...

एक प्यारी-सी लड़की अकेले प्रकाश में
उसका चेहरा ही प्यार बोलता था
मैंने उसका आलिंगन किया
मैंने उसके होंठों को चूमा
आह, कितना सुखद-सुख...
नेता, योद्धा, राजे-महाराजे
इस धरती के महान
लेकिन इस भीड़ के सबसे ऊपर
मैंने खुद ईश्वर का अभिनय किया
माँ धरती की गोद में
मैं स्वयं एक सही ईश्वर के
रूप में प्रस्तुत हुआ...
आकाश के प्याले से मैंने पिया
एक खुली हँसी से मैंने अपना प्याला भरा
लेकिन उनमें केवल सपने ही सपने थे
अनंत-अनेक

चौदह निबंध
श्रीराम परिहार

कक्षा में मैं विद्यापति का वसंत वर्णन पढ़ा रहा हूँ। छात्रों से वसंत की प्रकृति और गुण-धर्म पूछता हूँ। वे मौन हैं। भारतीय बारह महीनों के नाम पूछता हूँ। ऋतुएँ पूछता हूँ। उनसे जुड़े महीने पूछता हूँ। छात्र मेरी तरफ एकदम अजनबी की तरह देखते हैं। यह कैसा प्रोफेसर है, 21वीं सदी के ड्राइंग रूम में घिसी-पीटी चीजें रख रहा है। ये वसंत-फसंत क्या होता है? यहाँ तो दो दिन लगातार बरसात होती है, तो घर में मूड खराब हो जाता है, बहुत गर्मी होती है, तो पार्क में टल्ले-बाजी करते शाम कट जाती है और सुबह-सुबह हाफ स्वेटर में ठंड को ठेंगा दिखाते जब महाविद्यालय आना पड़ता है, तो इन धूल भरे और फूटे काँच की खिड़कियों वाले कमरों में हवा कुछ ज्यादा ही परेशान करती है। बस इतने ही तो मौसम होते हैं। ये वसंत, शरद और हेमंत कौन है? जो मौसम के बीच-बीच में सेंध लगा देते हैं। अरे साहब हम तो समाचार पत्र या डॉक्टर की टेबल पर रखे कैलेंडर में किसी महीने की तारीखों के बाजू में खिलते फूलों को देखकर जानते हैं कि कहीं कोई मौसम फूलों का भी होता है। मैं छात्रों के मौन एवं उनकी आँखों की हिकारत की भाषा को पढ़कर खून का घूँट निगल जाता हूँ और इतने में कचनार की डाल पर कोयल बोल उठती है - ''कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।'' (ओ वसंत! तुम्हें मनुहारता कचनार)

कहानियाँ
बसंत त्रिपाठी
पिता
कहानी
तीन दिन
अंतिम चित्र
अतीत के प्रेत

आलोचना
राजीव कुमार
सक्रिय जनपक्षधरता : स्वयं प्रकाश की कहानियाँ
मधुछंदा चक्रवर्ती
बदलते पारिवारिक मूल्यों तथा मानवीय संबंधों को दर्शाता उपन्यास : दौड़

व्यंग्य
सूर्यबाला
जूते चिढ़ गए हैं...
गर्व से कहो हम पति हैं
हिंदी साहित्य की पुरस्कार परंपरा
देश-सेवा के अखाड़े में...

कविताएँ
प्रयाग शुक्ल

कुछ और कहानियाँ
सरिता कुमारी
सुरीली
वह अजनबी
नन्हा फरिश्ता
ओ रे रंगरेज...
बंद लिफाफा

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ISSN 2394-6687

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